भाषा की पारंपरिक शुद्धता बनाए रखना आवश्यक या अनावश्यक

Hits: 1689

डा० सुरेन्द्र गंभीर

यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया

आज संस्कृतियों के संगम वाले युग में भाषा की या संस्कृति के अन्यान्य अवयवों की पारंपरिक शुद्धता बनाए रखना संभव नहीं है। जब दो संस्कृतियों में लंबे समय तक संपर्क होता है तो आदान-प्रदान स्वाभाविक है। आदान-प्रदान भौतिक स्तर पर भी होता है, वैचारिक स्तर पर भी होता है, और भाषा के स्तर पर भी होता है। ये तीनों स्तर संस्कृति के ही अंग हैं। सामान्यतः अन्य संस्कृतियों के साथ संबंध से भाषा समृद्ध होती है। नए आविष्कार, नए विचार, नई अवधारणाएं जनजीवन में नवीन ऊर्जा को जन्म देती हैं और उन को अभिव्यक्त करने के लिए  नए शब्दों का आयात भी आवश्यक हो जाता है।

आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक स्तर पर प्रभुत्वशाली संस्कृतियां दूसरी संस्कृति से लेती कम हैं, देती अधिक हैं। वास्तविकता यह है कि प्रभावी संस्कृतियां देती नहीं हें लेकिन प्रभावित संस्कृतियां अधिक ले लेती हैं। पिछले लगभग एक हज़ार वर्षों से भारतीय रहन-सहन सहित भारतीय भाषाएं अनेक विदेशी भाषाओं से प्रभावित हुई हैं। सहस्रों विदेशी शब्द भाषा में आए और धीरे धीरे जनभाषा का अभिन्न अंग बन गए हैं। आज उन शब्दों के बिना हिन्दी भाषा के व्यावहारिक अस्तित्व की कल्पना तक नहीं की जा सकती। यहां तक कि ध्वनियों के स्तर पर भी ज फ और ज़ फ़ के अंतर का भी एक अपना सामाजिक महत्व स्थापित हो चुका है।

जब दो भाषाएं किसी समाज में साथ-साथ सक्रिय होती हैं तो उन दो भाषाओं की मिलीजुली एक मध्यवर्ती भाषा का समुदय धीरे धीरे सर्वत्र होता है। भाषा-द्वैत की स्थिति में औपचारिक प्रयोग-क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाली भाषा की शब्दावली का आयात अनौपचारिक प्रयोग-क्षेत्रों में व्यवहृत भाषा में होने लगता है, और यही मिश्रित भाषा एक मध्यवर्ती भाषा बन जाती है। शिक्षा के प्रसार के साथ लोगों के दैनंदिन व्यवहार में औपचारिक भाषा के शब्दों के प्रयोग की संख्या धीरे धीरे बढ़ती जाती है। मानक हिन्दी और भोजपुरी के संदर्भ में भोजपुरी के लिखित साहित्य में मानक हिन्दी के शब्दों की भरमार इस मध्यवर्ती भाषा का एक उदाहरण है। इसी प्रकार अंग्रेज़ी और हिन्दी के प्रसंग में हिंगलिश की उत्पत्ति इसका दूसरा उदाहरण है। भाषा-विज्ञान में औपचारिक संदर्भों वाली भाषा को शब्द-दायिनी (लैक्सीफ़ायर) भाषा कहा गया है।

आयातित शब्दों की उपादेयता के आधार पर हम उन्हें दो वर्गों में बांट सकते हैं। एक तो वे शब्द हैं जो अपरिहार्य हैं अर्थात् जिनके लिए दूसरी भाषा में कोई उचित पर्यायवाची उपलब्ध नहीं। ऐसे सब तत्वों को भाषा-संपर्क की स्वाभाविक और अनिवार्य प्रक्रिया मानकर हमें स्वीकार करना ही होगा। दूसरे वर्ग में वे शब्द हैं जो अपनी भाषा को अधिक प्रतिष्ठित दिखाने हेतु लिए जाते हैं। यह तर्क अंग्रेज़ी-हिन्दी पर अधिक लागू होता है और हिन्दी-भोजपुरी पर कम लागू होता है। उसका कारण है कि हिन्दी-भोजपुरी एक ही संस्कृति के अंग होने के कारण एक सातत्य-रेखा (कन्टिन्युअम) पर अवस्थित हैं परंतु अंग्रेज़ी-हिन्दी उस स्थिति में नहीं हैं।

अंग्रेज़ी-हिन्दी के प्रसंग पर थोड़ी गहराई से चर्चा करते हैं। इस समय अंग्रेज़ी औपचारिक संदर्भों वाली भाषा के स्तर पर है और हिन्दी आपसी सामाजिक व्यवहार में और बाज़ार में प्रयुक्त होने वाली भाषा है। कुछ प्रयोग-क्षेत्रों में दोनों का व्यवहार होता है परंतु उपर्युक्त (औपचारिक और अनौपचारिक) इनके प्रधान प्रयोग-क्षेत्र हैं। इसलिए अंग्रेज़ी शब्द-दायिनी भाषा है और हिन्दी अंग्रेज़ी के शब्दों को आत्मसात् करती है। एक भाषा देने वाली है और दूसरी लेने वाली है।

पहले वर्ग के शब्दों का अनिवार्य आयात स्पष्ट है। दूसरे वर्ग के अंतर्गत आने वाले विदेशी शब्दों का प्रयोग हिन्दी जैसी भाषा पर क्या पड़ता है इसपर थोड़ा विचार करते हें।

  1. अंग्रेज़ी के अनावश्यक शब्दों के समावेश से हिन्दी और अंग्रेज़ी के बीच एक मध्यवर्ती नई बोलचाल की भाषा का जन्म हुआ है जिसे हम हिंगलिश कहने लगे हैं। फलस्वरुप समाज में सम्मान के स्तर पर अंग्रेज़ी का पहला स्थान है, सामन्य बातचीत में हिंगलिश का दूसरा स्थान है, और हिन्दी का तीसरा स्थान है।
  2. अनेकानेक संदर्भों में हिंगलिश का प्रयोग ही स्वाभाविक लगने लगा है और केवल हिन्दी का प्रयोग खटकने लगा है।
  3. मध्यवर्ती शैली की सुलभता के कारण प्रयोग-कर्ता इतने स्वतः-संतुष्ट हैं कि परिणाम-स्वरूप आज भारत में अनेकानेक लोगों की न अंग्रेज़ी अच्छी है और न हिन्दी अच्छी है। यह इतो नष्टः ततो भ्रष्टः वाली स्थिति है।
  4. जहां जहां अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग हो रहा है वहां वहां वर्षों से हिन्दी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग अस्वाभाविक होता जा रहा है, और परिणाम-स्वरूप वे शब्द धीरे धीरे प्रयोग से बाहर होते जा रहे हैं।
  5. अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग से भाषा का अपना पारंपरिक सौंदर्य नष्ट हो रहा है।
  6. हिन्दी में सुलभ शब्दों के स्थान पर अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग स्वभाषा के प्रति गौरव और सम्मान का हनन कर रहा है और मानसिक दासता की प्रतीति को संपुष्ट कर रहा है।
  7. हिंगलिश जैसी भाषा में अभ्यस्त होने के कारण युवा पीढ़ी की हिन्दी में लिखे साहित्य की समझ और उनका उससे वास्ता कमज़ोर होता जा रहा है।
  8. समाज में अंग्रेज़ी-शब्दों का प्रयोग करने वालों और अंग्रेज़ी न जानने वालों के बीच में दूरी बढ़ रही है।
  9. हिन्दी में अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग के कारण जो देश अंग्रेज़ीभाषी नहीं हैं उनके नागरिकों के लिए हिन्दी सीखना अधिक कठिन हो रहा है। उनके लिए सम्मिश्रित हिन्दी को सीखने के लिए हिन्दी के किस प्रयोग-क्षेत्र में कितनी और कहां अंग्रेज़ी लानी है इसके लिए अंग्रेज़ी की शब्दावली सीखने के अतिरिक्त हिन्दी व्याकरण के नए नियम भी सीखने होंगे।
  10. हिन्दी में अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग से अंग्रेज़ी न जानने वाले देशों के लोगों में हिन्दी के प्रति आत्मीयता और सम्मान में कमी आएगी।

इसमें संदेह नहीं कि विदेशी शब्दों का समावेश एक दृष्टि से दो संस्कृतियों के मेल का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। जब मेज़ कुरसी से लेकर पहनावे, खानपान, और वैचारिक स्तर तक हमने बहुत कुछ दूसरी संस्कृति से ले कर अपना लिया तो आज वर्षों से व्यवहार में लाए जाने के बाद भाषा के विदेशी शब्दों को बीन बीन कर बाहर फेंकना कहां तक संभव होगा? परंतु जिन विदेशी तत्वों का आयात दूसरी भाषा के प्रयोग से मिलने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा से अभिभूत होता है, उन शब्दों के समीकरण से हिन्दी जैसी भाषा के अपकर्ष और अधःपतन का दिशा-निर्देश होता है। सार-रूप में यह कहा जा सकता है कि जहां एक तरफ़ अंग्रेज़ी के अनेकानेक तकनीकी और दूसरे अपरिहार्य शब्द हिन्दी में आएंगे ही, वहां बिना कारण हिन्दी शब्दों का निराकरण करके अंग्रेज़ी शब्दों को वहां स्थानापन्न करना हिन्दी भाषा का क्रियोलीकरण करना है और उसे मध्यम दर्जे की भाषा के वर्ग में ले जाना है।